|
भाग १
पत्र, संदेश और छोटे-छोटे लिखित वक्तव्य
भगवान् और विश्व
विश्व : भगवान् की अभिव्यक्ति
१९५२
*
प्रभु ही हर चीज को सत्ता की गहराइयों से चलाते हैं, उनकी इच्छा निदेशन करती है, उनकी शक्ति कार्य करती है । १८ सितम्बर, १९५४
*
हम भगवान् की सेवा में हैं, भगवान् ही निश्चय करते है, आदेश देते ओर शुरू करते है, निदेशन करते और कार्य सम्पादित करते हैं । २५ दिसम्बर, १९५४
*
भगवान को किसने बनाया ?
स्वयं उन्होंने । अगस्त, १९६६
*
विश्व की योजना बनाने में किर्तना समय लगा था ? उसे क्रियान्वित करने वाला कौन छात्र था ? ३ पहले से कुछ भी नहीं, सब कुछ तत्काल, सीधे और सहज, बिना किसी मध्यस्थ के । बहुधा मध्यस्थों के हस्तक्षेप ने मामलों को सरल बनाने की जगह ज्यादा पेचीदा ही बनाया हे । सुनाने के लिए लम्बी कहानी है यह ।
*
चेतना क्या है ?
जब प्रभु स्वयं अपने बारे में सचेतन होते हैं तो जगत् की सृष्टि होती है । चेतना वह श्वास है जो सबको जीवन देता है ।
*
मधुर मां, कृपया मुझे 'चेतना' का अर्थ बतलाइये ।
चेतना के बिना तुम्हें यह भी पता न होता कि तुम जीवित हो ।
*
चेतना किसी चीज के बारे में तादात्म्य द्वारा अभिज्ञ होने की क्षमता है ।
भागवत चेतना केवल अभिज्ञ ही नहीं होती बल्कि जानती और सम्पन्न करती है । उदाहरण के लिए किसी स्पन्दन के बारे में अभिज्ञ होने का मतलब यह नहीं है कि तुम उसके बारे में सब कुछ जानते हो ।
*
भागवत चेतना में नीचे की छोटी-से-छोटी चीजें भी ऊपर की श्रेष्ठतम चीजों के साथ एक होती हैं । ३ जुलाई, १९५४
*
क्या भगवान् सभी चीजों में हैं, कूड़ेदानी में भी ?
सारा विश्व भगवान् की अभिव्यक्ति है लेकिन ऐसी अभिव्यक्ति जो अपने मूल के बारे में सम्पूर्ण अचेतना से शुरू होती है और थोड़ा-थोड़ा करके ४ चेतना की ओर उठती है ।
*
एक क्षण के लिए भी यह न भूलो कि यह सब स्वयं भगवान् ने अपने आपमें से बनाया है । वे केवल हर चीज में उपस्थित ही नहीं हैं अपितु स्वयं हर चीज हैं । भेद केवल अभिव्यंजना और अभिव्यक्ति में है ।
अगर तुम यह भूल जाओ तो सब कुछ खो बैठोगे ।
*
विश्व के आश्चर्यों का कहीं अन्त नहीं है ।
हम अपने छोटे-से अहंकार की सीमाओं से जितना अधिक मुक्त होते चलेंगे, उतना ही अधिक ये आश्चर्य अपने-आपको हमारे आगे प्रकट करेंगे ।
*
प्रभु अपने विश्व को तभी अपने पूरे अधिकार में लेंगे जब विश्व स्वयं प्रभु बन जायेगा ।
विश्व में भगवान् का कार्य-संचालन
विश्व एक ससीम समग्रता है लेकिन उसकी अन्तर्वस्तु असीम है । इस अनन्तता में जो परिवर्तन आते हैं वे पदार्थ पर भागवत तत्त्व की क्रिया के परिणामस्वरूप, मात्रा में गुण के प्रवेश और केलाव द्वारा आते हैं । वह परिवर्तन निरन्तर उत्तरोत्तर विश्व की अन्तर्वस्तु में व्यवस्था और पुनर्व्यवस्था लाता है । २४ मार्च, १९३२
*
हर क्षण विश्व उसकी समग्रता में और उसके हर भाग में सृष्ट किया जाता है । * ५ विश्व में कोई दो संयोजन, कोई दो गतियां एक-सी नहीं हैं । किसी भी चीज की ठीक प्रतिकृति नहीं की जाती । सादृश्य होते हैं साम्य होते हैं, परिवार होते हैं, गतियों के परिवार होते हैं जिन्हें स्पन्दनों के परिवार कह सकते हैं लेकिन कोई दो चीजें ऐसी नहीं हैं जो देश या काल में एकदम एक-सी हों । कोई चीज दोहरायी नहीं जाती अन्यथा अभिव्यक्ति न होगी, संभवन न होगा, एक ही वस्तु, केवल एक ही सृष्टि होगी ।
अभिव्यक्ति ठीक यही विभिन्नता है, 'एक' ही अपने-आपको 'अनेकों' में, अनन्त रूप से खोलता जाता है ।
*
भौतिक स्तर पर भगवान् अपने-आपको सौन्दर्य द्वारा, मानसिक स्तर पर ज्ञान द्वारा, प्राणिक स्तर पर शक्ति द्वारा और चैत्य स्तर पर प्रेम द्वारा अभिव्यक्त करते हैं ।
जब हम पर्याप्त ऊपर उठ जाते हैं तो पता लगता है कि ये चारों पहलू एक ही चेतना में इकट्ठे हो जाते हैं जो प्रेम से भरपूर प्रदीप्त, शक्तिशाली, सुन्दर सभी को लिये हुए, सभी में व्याप्त होती है ।
केवल वैश्व लीला की सन्तुष्टि के लिए ही यह चेतना स्वयं को विभिन्न दिशाओं या अभिव्यक्ति के भिन्न पहलुओं में विभक्त करती है ।
*
यह जगत् एक गड़बड़झाला है जिसमें अंधकार और प्रकाश, मिथ्यात्व और सत्य, मृत्यु और जीवन, कुरूपता और सुन्दरता, घृणा और प्रेम आपस में इतने गुंथे हुए हैं कि एक से दूसरे को अलग पहचानना लगभग असम्भव है । और उन्हें सुलझाना और इस निर्दय संघर्ष जैसे भयंकर आलिंगन से छुड़ाना तो और भी अधिक कठिन है । यह और भी तीक्ष्ण हो जाता है क्योंकि वह परदे के पीछे छिपा है, विशेष रूप से मानव चेतना में जहां संघर्ष ज्ञान के लिए, शक्ति के लिए, विजय के लिए तीव्र व्यथा के एक ऐसे युद्ध का रूप ले लेता है जो अन्धकारपूर्ण और पीड़ादायक है । वह और भी ज्यादा नृशंस मालूम होता है क्योंकि वह निरर्थक लगता है । लेकिन उसका समाधान संवेदनों, संवेगों और विचारों से ऊपर मन के ६ क्षेत्र के परे--भागवत चेतना में है । २९ मार्च, १९३४
*
अभिव्यक्ति सभी कठिनाइयों पर विजय पा लेगी क्योंकि अभिव्यक्ति का अर्थ है सभी कठिनाइयों पर विजय ।
*
एक भागवत चेतना यहां, धरती पर इन सब सत्ताओं द्वारा काम कर रही है । इन सभी अभिव्यक्तियों द्वारा अपना मार्ग तैयार कर रही है । आज के दिन यह पृथ्वी पर पहले की अपेक्षा कहीं अधिक जोर से कार्यरत है । २९ जनवरी , १९३५
*
मैं कहूंगी : धरती को इस बात का भान हो जाये कि भगवान् अभिव्यक्त हो रहे हैं । ८ अप्रैल, १९३५
*
ओह, हम सदा बदलते हुए ऊपरी दृश्यों को ही न देखा करें । हर चीज में और हर जगह केवल भगवान् की अपरिवर्तनशील एकता का ही मनन करें ! २९ सितम्बर, १९५४
*
अगर तुम बाहरी रूपों को केवल उनके अपने लिए, उन्हीं के अर्थ, केवल उनके रूप-रंग में न देखो बल्कि उन्हें एक अधिक गहरी, अधिक स्थायी सद्वस्तु की अभिव्यक्ति के रूप में देखो तो वे सब, और साथ ही सभी परिस्थितियां और घटनाएं उस शक्ति की प्रतीक बन जाती हैं जो उनके पीछे स्थित है और उन्हें अपनी अभिव्यक्ति के लिए काम में लाती है ।
चेतना की एक अवस्था-विशेष में कोई भी परिस्थिति ऐसी नहीं होती, ७ कोई रूप, कोई क्रिया, कोई गति ऐसी नहीं होती जो ज्यादा गहरी या ज्यादा ऊंची, अधिक स्थायी, अधिक तात्त्विक ओर अधिक सत्य सद्वस्तु की अभिव्यक्ति न हो ।
*
बाहरी रूप-रंग के पीछे एक सूक्ष्म सद्वस्य है जो सत्य के अधिक निकट है । हम तुम्हें वही दिखलाने की कोशिश कर रहे हैं ।
*
इस भ्रम के संसार को, इस निराशाजनक दुःस्वप्न को भगवान् ने अपनी परम सद्वस्तु प्रदान की है और जड़ द्रव्य के हर अणु में उनकी शाश्वतता का कुछ अंश है । १४ नवम्बर, १९५४
*
क्या भगवान् के लिए जगत् की इस दुःखद अनेकता की रचना करने के लिए, अपने अकेले रहने के परम आनन्द का त्याग करना एक महान् बलिदान नहीं है ?
*
बेचारा भगवान् ! उस पर कितने बीभत्स कृत्यों का आरोप लगाया जाता है ।
अगर ये आरोप सच्चे होते तो वह कैसा पिशाच होता, वही जो सचमुच सर्वकरुणामय है ।
*
यह कहना गलत है कि यह जगत्, जैसा कि यह है, भगवान् की इच्छा के अनुसार बना है । अगर ऐसा होता तो,
(१) जगत् की समस्त दुष्टता भगवान् की दुष्टता होती । (२) अपने-आपको या संसार को बदलने की कोई जरूरत न होती । * ८ सब कुछ सोच-विचारकर दुनिया जैसी है उसे देखकर और वह जैसी लगती है उसे लाइलाज मानकर, मानव-बुद्धि ने यही फैसला किया है कि यह जगत् भगवान् की एक भूल है और अभिव्यक्ति या सृष्टि निश्चय ही कामना का परिणाम है, अपने- आपको अभिव्यक्त करने की कामना, अपने-आपको जानने की कामना, अपने-आपका आनन्द लेने की कामना । अत: करने लायक बस एक ही चीज है, जितनी जल्दी हो सके, कामनाओं और उनके मारक परिणामों से चिपके रहने से इन्क्रार करके, इस भूल को समाप्त कर दिया जाये ।
लेकिन परम प्रभु उत्तर देते हैं कि यह कॉमेडी अभी तक पूरी नहीं खेली गयी है, और फिर कहते हैं, ''अन्तिम अंक के लिए प्रतीक्षा करो, तुम निःसन्देह, अपनी राय बदल लोगे ।'' २३ जुलाई, १९५८
*
जब भौतिक जगत् भागवत भव्यता को अभिव्यक्त करेगा तब सब कुछ अद्भुत हो जायेगा ।
*
जो अपने हृदय के अन्दर सुनना जानता है उससे सारी सृष्टि भगवान् की बातें करती है । ८ दिसम्बर, १९६५
*
'परम चेतना' को छोड़्कर और कोई चेतना नहीं है । 'परम इच्छा' को छोड़कर और कोई इच्छा नहीं है । 'परम जीवन' को छोड़कर और कोइ, जीवन नहीं है । 'परम व्यक्तित्व' को छोड़कर ओर कोई व्यक्तित्व नहीं है, वही 'एक' और 'सर्व' है । १७ दिसम्बर, १९६७ * ९ इस संसार में ऐसी कोई चीज नहीं है जो प्रकृति से परे के निदेशन के अधीन न हो--परन्तु अधिकतर मनुष्य इससे अनभिज्ञ हैं । १८ सितम्बर, १९६७
*
भागवत उपस्थिति : वह अज्ञानी आंखों से अपने सदा-उपस्थित वैभव को छिपाती है ।
*
तुम आनन्द की बात करते हो लेकिन जड़-भौतिक जगत् में आनन्द के जैसी कोई चीज है ही नहीं । फिर भी, आनन्द को अलग कर दो और सारी दुनिया ढह जायेगी । १०
|